25 मार्च 2020 चैत्र नवरात्री प्रारम्भ हो रहे हैं। हम माँ दुर्गा से प्रार्थना करते है के वो विशव को coronavirus महामारी से सुरक्षित करें और सभी को अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करें। नवरात्री का समय बहुत पावन समय होता है, घर घर में नवदुर्गा स्थापित होके अपना आशीष देती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी ये समय बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योकि घरो और पूजा स्थलों पे हवन आदि होते है जो वायुमंडल में से कीटाणुओं को खतम कर के वातावरण शुद्ध करता है। चैत्र नवरात्री में माता रानी हमारे घरो में आके स्थापित होती है व अपना आशीर्वाद देती है।
नवरात्री का पहला दिन माँ शैल पुत्री को समर्पित होता है।
अपने सती जन्म के पश्चात, माता सती पर्वत राज हिमवान के घर पुत्री रूप में जन्मी थे इसलिए उन्हें शैलपुत्री कहा जाता है।
माता का यह स्वरूप मन को शांति और उत्साह देने वाला और भय नाश करने वाला हैं। माँ शैलपुत्री का ध्यान करने से भक्तों को यश, कीर्ति, धन, विद्या और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मां शैलीपुत्री अपने भक्तों में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती हैं। उनके इस रूप की पूजा से मन को द्रढ़ता प्राप्त होती है। आपके अंदर प्रतिबद्धता आती है। माता शैलपुत्री अस्थिर मन को केंद्रित करती हैं।
माता का रूप – माता बैल पर सवार रहती हैं और वो एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में कमल पुष्प धारण करती है। उनके मस्तक पर चंद्रमा शोभायमान रहता है ।
मंत्र – “शिवरूपा वृष वहिनी हिमकन्या शुभंगिनी।
पद्म त्रिशूल हस्त धारिणी
रत्नयुक्त कल्याण कारीनी।।”
२. “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं शैलपुत्र्यै नम:”
बीज मंत्र— ह्रीं शिवायै नम:।
नवरात्री का दूसरा दिन माता ब्रह्मचारिणी को समर्पित होता है।
अपने कन्या स्वरूप में माता ने भगवान शिव शंकर को अपने पति रूप में पाने के लिए कठोर तप किया जिस के कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा जाता है।
माता ब्रह्मचारिणी ने नारदजी के सलाह से भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया था। इनके कठोर तप के कारण ही इनका नाम ब्रह्मचारिणी पड़ा। हजार वर्ष तक माता ने केवल फल-फूल खाए और कई वर्षो तक जमीन पर रहकर शाक पर जीवनयापन किया।
बारिश और धूप में उन्होंने हजारों वर्ष तक उन्होंने भगवान शिव की आराधना की। सूखे बेलपत्र खाए तो कभी उन्होंने निर्जल और निराहार रहकर कठोर तप किया और प्रभु शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त किया।
माता का स्वरुप
मां ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में जप की माला व बाएं हाथ में कमंडल है। माता का यह स्वरुप सरल व् दुष्टो का मार्ग दर्शन करने वाला है। साधक यदि माँ भगवती के इस स्वरूप की आराधना करता है तो उसमें तप करने की शक्ति, त्याग, सदाचार, संयम और वैराग्य में वृद्धि होती है।
मंत्र १- ह्मचारयितुम शीलम यस्या सा ब्रह्मचारिणी ।
सच्चीदानन्द सुशीला च विश्वरूपा नमोस्तुते ।।
2- ॐ देवी ब्रह्मचारिण्यै नमः॥
नवरात्री का तीसरा दिन माता चंद्रघंटा को समर्पित है।
नवरात्रि के तीसरे दिन माता चंद्रघंटा का पूजन किया जाता है। असुरों के विनाश हेतु मां दुर्गा ने देवी चन्द्रघण्टा का रूप धारण किया । देवी चंद्रघंटा ने भयंकर दैत्य सेनाओं का संहार करके देवताओं को उनका भाग दिलवाया।माता चंद्रघंटा सम्पूर्ण जगत की पीड़ा का नाश करती हैं। देवी चंद्रघंटा की पूजा करने से भक्तों को इच्छित फल प्राप्त होता है।
माता चंद्रघंटा का रूप
देवी चंद्रघंटा का शरीर सोने के समान कांतिवान है। इनके माथे पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी लिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। उनकी दस भुजाएं हैं और दसों भुजाओं में अस्त्र-शस्त्र धारण किया है। देवी के हाथों में कमल, धनुष-बाण, कमंडल, तलवार, त्रिशूल और गदा जैसे अस्त्र धारण किए हुए हैं। इनके कंठ में सफेद पुष्प की माला और रत्नजड़ित मुकुट शीर्ष पर विराजमान है। देवी चंद्रघंटा भक्तों को अभय देने वाली तथा परम कल्याणकारी हैं।
मंत्र – पिण्डजप्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता।।
नवरात्री के चौथे दिन माँ कुष्मांडा को समर्पित है।
नवरात्रि में चौथे दिन माता के कुष्मांडा रूप की पूजा जाती है। अपनी मंद हंसी के द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन देवी को कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इन्ही देवी ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इन्हे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।
माँ कुष्मांडा का स्वरुप
माँ कुष्मांडा की आठ भुजाएं हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। माँ कुष्मांडा का वहां है।
माँ कुष्मांडा का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृति में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस माँ को कुष्मांडा कहा गया। माँ का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए माता के शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दीप्यमान व् अलोकिक है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में माँ का तेज व्याप्त है।
माँ कुष्मांडा का यह रूप भक्तों को रोगों और शोकों से मुक्त करता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। ये देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है।
मँत्र-१. ॐ देवी कूष्माण्डायै नमः॥
२. सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे।
नवरत्रि का पांचवा दिन माता के स्कंदमाता रूप को समर्पित है।
नवरत्रि का पांचवा दिन स्कंदमाता की पूजा की जाती है। स्कंदमाता यानी स्कंद की मांं। माता पार्वती के बड़े पुत्र कार्तिकेय का नाम स्कंद है। कार्तिकेय जी के माता होने के करना माता को स्कंदमाता कहा जाता है। मान्यता यह भी है कि आदिशक्ति माता पार्वति ने बाणासुर के अत्याचार से संसार को मुक्त कराने के लिए अपने तेज से एक बालक को जन्म दिया। 6 मुख वाले सनतकुमार को ही स्कंद कहा जाता है।
स्कंदमाता की कृपा से शत्रुओं पर विजय होती है और कठिन परिस्थितियों से उबरने में मदद मिलती है। स्कंदमाता की पूजा करने से नि:संतान दंपत्तियों को संतान की प्राप्ति होती है। स्कंदमाता मोक्ष प्रदान करने वाली भी हैं। माता को लाल रंग के पुष्प अतिप्रिय हैं, इसलिए पूजा में माता को गुड़हल या लाल गुलाब अर्पित करना चाहिए।
स्कंदमाता का स्वरुप
स्कंदमाता सिंह पर सवार रहती हैं। स्कंदमाता अपनी गोद में सनतकुमार को रखी रहती हैं। स्कंदमाता की चार भुजाएं हैं। वे अपने दो हाथों में कमल पुष्प धारण करती हैं। वे अपने एक दाएं हाथ से सनतकुमार को पकड़ी हैं और दूसरे दाएं हाथ को अभय मुद्रा में रखती हैं। स्कंदमाता कमल पर विराजमान होती हैं, इसलिए उनको पद्मासना देवी भी कहा जाता है।
मँत्र-१. ओम देवी स्कन्दमातायै नमः॥
२. सिंहासनगता नित्यं पद्माञ्चित करद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥
नवरात्री का छँटा दिन माता कात्यायनी को समर्पित होता है।
इस दिन मां दुर्गा के कात्यायनी स्वरूप की आराधना की जाती है। माता कात्यायनी के पूजन से व्यक्ति को सफलता और प्रसिद्धि प्राप्त होती है। विवहा बाधा दूर करने ने के साथ माता दुःख व् भय से मुक्ति दिलाती हैं। माता कात्यायनी को लाल रंग का पुष्प खासकर लाल गुलाब बहुत प्रिय है।
ऋषि मुनि कात्यान के घर पुत्री रूप में जन्म लेने के कारण माता को कात्यानी कहा जाता है। देवता को असुरो के डर व् अत्याचार से मुक्ति देलिने के लिए माता ने कात्यायनी रूप में जन्म लिया। माता ने अपने ऐसे रूप में महिषासुर का वध भी किया, इस लिए माता के इस रूप को महिषासुरमर्दिनि भी कहा जाता है।
माता का स्वरुप
मां कात्यायनी शेर पर सवार रहती हैं। उनकी चार भुजाएं हैं। वह अपने एक बाएं हाथ में कमल का पुष्प और दूसरे बाएं हाथ में तलवार धारण करती हैं। वहीं, एक दाएं हाथ में अभय मुद्रा और दूसरे दाएं हाथ में वरद मुद्रा धारण करती हैं।
मंत्र-१. ॐ देवी कात्यायन्यै नमः॥
२. चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद् देवी दानवघातिनी॥
नवरात्री के सातवां दिन माता कालरात्रि को समर्पित होता है।
नवरात्रि के सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा होती है। मां कालरात्रि की उपासना से प्राणी सर्वथा भय मुक्त हो जाता है। दानव, भूत, प्रेत, पिशाच आदि इनके नाम लेने मात्र से भाग जाते हैं। मां कालरात्रि का स्वरूप काला है, लेकिन यह सदैव शुभ फल देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम शुभकारी भी है।
मां कालरात्रि को यंत्र, मंत्र और तंत्र की देवी कहा जाता है। कहा जाता है कि देवी दुर्गा ने असुर रक्तबीज का वध करने के लिए कालरात्रि को अपने तेज से उत्पन्न किया था।
माता का स्वरूप
माता के शरीर का रंग रात्रि के अंधकार के तरह काला है। मां कालरात्रि के गले में नरमुंड की माला है। कालरात्रि के तीन नेत्र हैं और उनके केश खुले हुए हैं। मां गर्दभ (गधा) की सवारी करती हैं। मां के चार हाथ हैं एक हाथ में कटार और एक हाथ में लोहे का कांटा है, एक हाथ अभय मुद्रा में है और एक हाथ वर मुद्रा में।
मंत्र- १. धां धीं धूं धूर्जटे: पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु।।
२. ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
नवरात्री का आठवां दिन माता महागौरी को समर्पित होता है।
नवरात्री के आठवां दिन को दुर्गाष्टमी या महाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन मां दुर्गा के महागौरी स्वरूप की आराधना की जाती है। महाष्टमी के दिन मां महागौरी की आराधना करने से सुख और समृद्धि के साथ सौभाग्य की प्राप्ति होती है। भक्तों के सभी दुख दूर हो जाते हैं, वह पापमुक्त हो जाते हैं। कई जगहों पर दुर्गाष्टमी के दिन कन्या पूजन भी किया जाता है। पूजा में उनको रातरानी का पुष्प अर्पित करना चाहिए। पूजा के दौरान दुर्गा चालीसा और दुर्गा आरती करें, इसके पश्चात मां महागौरी के समक्ष अपनी मनोकामनाएं प्रकट कर दें। पूजा से प्रसन्न होकर माता महागौरी आपकी मनोकामनाओं की पूर्ति करेंगी।
माता शैलपुत्री 16 वर्ष की अवस्था में अत्यंत्र सुंदर और गौर वर्ण की थीं। अत्यंत गौर वर्ण के कारण ही माता का नाम महागौरी पड़ा। वहीं एक कथा यह भी है की, एक बार माता पार्वती भगवान शिव से नाराज होकर कैलाश से कहीं दूर चली गईं और कठोर तपस्या करने लगीं। काफी वर्षों तक वह वापस नहीं आईं, तो भगवान शिव उनकी खोज में निकले। जब वह माता पार्वती से मिले तो वे उनका स्वरूप देखकर दंग रह गए। उस समय माता पार्वती अत्यंत गौर वर्ण की हो गई थीं। भगवान शिव ने उनको गौर वर्ण का वरदान दिया, जिससे वह माता महागौरी कहलाने लगीं।
माता का स्वरुप
माता महागौरी भी माता शैलपुत्री की तरह ही बैल पर सवार रहती हैं, इसलिए इनको वृषारूढ़ा भी कहा जाता है। इनकी चार भुजाएं हैं। वह अपने एक दाएं हाथ में त्रिशूल धारण करती हैं और दूसरे दाएं हाथ को अभय मुद्रा में रखती हैं। वहीं, एक बाएं हाथ में वह डमरू धारण करती हैं तो दूसरे बाएं हाथ को वरद मुद्रा में रखती हैं। वह केवल श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, इसलिए उनको श्वेतांबरधरा भी कहा जाता है।
मंत्र-१. ओम देवी महागौर्यै नमः॥
२. श्वेते वृषेसमारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोददा॥
नवरात्री का नौवां दिन माता दुर्गा को समर्पित होता है।
माँ दुर्गा जीवन में सिद्धि, क्षमता प्रदान करती हैं जिससे सभी कार्य सबकुछ पूर्णता के साथ हो सके। बिना किसी कार्य किये आपकी इच्छा का पूर्ण हो जाना यही सिद्धि है। सिद्धि जीवन के हर स्तर में सम्पूर्णता प्रदान करती है। देवी सिद्धिदात्री की यही महत्ता है। देवी के नवें रूप को सिद्धिदात्री भी कहा जाता है।
माँ सिद्धिदात्री आपको जीवन में अद्भुत सिद्धि, क्षमता प्रदान करती हैं ताकि आप सबकुछ पूर्णता के साथ कर सकें। सिद्धि का क्याअर्थ है? सिद्धि, सम्पूर्णता का अर्थ है – विचार आने से पूर्व ही काम का हो जाना। आपके विचारमात्र, से ही, बिना किसी कार्य किये आपकी इच्छा का पूर्ण हो जाना यही सिद्धि है।
देवी महागौरी आपको भौतिक जगत में प्रगति के लिए आशीर्वाद और मनोकामना पूर्ण करती हैं, ताकि आप संतुष्ट होकर अपने जीवनपथ पर आगे बढ़ें।
माँ सिद्धिदात्री आपको जीवन में अद्भुत सिद्धि, क्षमता प्रदान करती हैं ताकि आप सबकुछ पूर्णता के साथ कर सकें। सिद्धि का क्याअर्थ है? सिद्धि, सम्पूर्णता का अर्थ है – आपके वचन सत्य हो जाएँ और सबकी भलाई के लिए हों। आप किसी भी कार्य को करें वो सम्पूर्ण हो जाए – यही सिद्धि है। सिद्धि आपके जीवन के हर स्तर में सम्पूर्णता प्रदान करती है। यही देवी सिद्धिदात्री की महत्ता है।
हिरण्याक्ष के वंश में उत्पन्न एक महा शक्तिशाली दैत्य दुर्गमासुर से सभी देवता त्रस्त हो चले थे। उसने इंद्र की नगरी अमरावती को घेर लिया था। देवता शक्ति से हीन हो गए थे, फलस्वरूप उन्होंने स्वर्ग से भाग जाना ही श्रेष्ठ समझा। भागकर वे पर्वतों की गुफाओं में जाकर छिप गए और सहायता हेतु आदि शक्ति अम्बिका की आराधना करने लगे। देवी ने प्रकट होकर देवताओं को निर्भिक हो जाने का आशीर्वाद दिया। एक दूत ने दुर्गमासुर को यह सभी गाथा बताई और देवताओं की रक्षक के अवतार लेने की बात कहीं। तक्षण ही दुर्गमासुर क्रोधित होकर अपने समस्त अस्त्र-शस्त्र और अपनी सेना को साथ ले युद्ध के लिए चल पड़ा। घोर युद्ध हुआ और देवी ने दुर्गमासुर सहित उसकी समस्त सेना को नष्ट कर दिया। तभी से यह देवी दुर्गा कहलाने लगी।
माता सिद्धिदात्री का स्वरूप
माता सिद्धिदात्री कमल के पुष्प पर विराजमान रहती हैं और उनका वाहन सिंह है। उनकी चार भुजाएं हैं। वह एक दाएं हाथ में गदा और दूसरे दाएं हाथ में च्रक धारण करती हैं। माता सिद्धिदात्री अपने एक बाएं हाथ में कमल का पुष्प और दूसरे बाएं हाथ में शंख धारण करती हैं।
मंत्र- १. ओम देवी सिद्धिदात्र्यै नमः॥
२. सिद्ध गन्धर्व यक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥